Thursday 27 March 2014

ठगे -ठगे सब बमभोला बन जाते ..

हर उलझन को ये सुलझा दे 
और सब कुछ है फिर उलझा दे 
बड़े-बड़े वादों से आगे अब 
हर चौक पे होर्डिंग लगवा दे। 
नए-नए ब्रांडो की लहरे 
थोक भाव में बेच रहे है  
जनता क्या सरकार चुने अब 
देश नहीं सिर्फ बाजार पड़े है। 
गांधी जी के बन्दर भांति 
आमजन बैठे-बैठे है 
मूड पढ़े कैसे अब कोई 
न कुछ देखे न ही सुने है। 
वोटर सब नारायण बनकर  
हवाई सिंघासन पर लेटें है 
दोनों हाथ उठे है लेकिन 
मुठ्ठी बंद किये ऐंठे  है। 
लोभ ,लालच प्रपंच में कितने 
रुई कि भांति नोट उड़े है 
सेवक सेवा कि खातिर अब 
कैसे-कैसे तर्क गढ़े है।  
बेसक कल लूट जाये नैया 
लगा दांव सब पड़े अड़े है 
आश निराश के ऊपर उठ कर 
द्वारे-द्वारे भटक फिर रहे है। 
किसकी किस्मत कौन है बदले 
आने वाला कल कहेगा 
जो करते सेवा का  दावा 
कितने सेवक वहाँ लगेगा। 
मंथर चक्र क्रमिक परिवर्तन 
सब पार्टी में अद्भुत गठबंधन 
तुम जाओ अब हम आ जाते 
ठगे -ठगे सब बमभोला बन जाते। 

Sunday 9 March 2014

अंतहीन


ये गाथा अंतहीन है
बनकर मिटने और
मिट -मिट कर बनने की।
प्रलय के बाद
जीवन बीज के पनपने की
और विशाल वट बृक्ष के अंदर
मानव जीवन को समेटने की।
रवि के सतत प्रकाश की
राहु के कुचक्र ग्रास की
कुरुक्षेत्र में गहन अंधकार की
विश्व रूप से छिटकते प्रकाश की।
अद्भुत प्रकृति के विभिन्न आयाम
जीवन के उद्गम श्रोत का  भान
पुनः अहं ज्ञान बोध कर
उसे बाँधने को तत्पर ज्ञान। 
द्वन्द और दुविधाओं से घिरकर 
श्रृष्टि के उत्कृष रचना 
अपने होने का अभिशाप कर 
अंतहीन विकास के रास्ते 
जाने कौन सा वो दिन हो 
जब मानव भूख के  
हर अग्निकुंड में 
शीतल ज्वाला की आहुति पड़े।  

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हर उद्भव के साथ
समग्र को समाने का प्रयास
ह्रदय को बस
एक सान्तवना सा है।
काल के आज का कुचक्र
जिनको अपने आगोश में लपेटा है।
प्रारब्ध के भस्म से
मानवता के मस्तिष्क  पर
तिलक से शांति का आग्रह। 
चिरंतन से उद्धार का उद्घोष
मानव से महामानव
तक कि अंतहीन यात्रा
और इसी यात्रा में
सतयुग कि महागाथा
से कलियुग के अवसान होने तक
हर मोड़ पर अनवरत
मानव के विकास बोझ 
और उसके राख तले
बेवस सी आँखे। 
अपने लिए
एक नए सूरज के उदय का 
अंतहीन इन्तजार करते हुए। । 

Wednesday 5 March 2014

एक ख्वाहिश

खुली आँखों से 
जो न दिखी हो अब तक 
किया हूँ बंद पलक बस 
तुझे निहारने के लिए       ।। 
प्यास बुझे तेरे प्रेम की 
ऐसी तो  कोई खवाहिश नहीं
बस चाहता हूँ जलूं  और
इसे  निखारने के लिए     ।। 
गूंजती है कई आवाजे 
टकराकर लौट जाती 
बस गूंजती है सनसनाहट 
तूं पास ही है ये जताने के लिए  ।। 
कभी पास-पास हम बैठे  
ऐसा न कर पाया 
दिलजले कई घूमते अब भी 
कुछ तस्वीर जलाने के लिए    ।।
टूटकर तो कितनो ने  
तुझपे इश्क का चादर चढ़ाया है 
मैंने ओढ़ा है तुझे 
खुद को भूलाने के लिए     ।।
कई रंग है तेरे 
सब अपना-अपना ढूढ़ते है 
मैंने मिला दी सबको 
नए निखार लाने के लिए   ।। 
तू इबादत है ,प्रेम है,इश्क या कुछ और 
मुझे मालूम नहीं 
बस ख्वाहिश  है इतनी 
तू छूटे न कभी और कुछ पाने के लिए। ।     

Monday 3 March 2014

नजर


लपलपाते जीभो से
कैसे नजर फाड़े है ,
देखा नहीं क्या कभी।
जहाँ के हो वहा भी
अंदर और बाहर तो होगा।
अलग -अलग रूपों में
यहाँ क्या अलग है ?
घर कि रौशनी
इन आँखों पर पड़ते ही
तस्वीर और कैसे बदल जाती है ?
यहाँ ऐसी कौन सी हवा है
जो तुम्हारे घर में नहीं बहती।
संस्कारों का बोझ
क्या इतना ज्यादा है ,
जो देहरी पर ही छोड़ आते हो।
भरा बाजार है
इंसान कहाँ ठीक से नजर आता
कहीं नजर ऐसा न टिके की
फिर नजर उठा न सको। 

Saturday 1 March 2014

बदलाव की बयार

                                 वक्त वाकई काफी ताकतवर होता है। इसमें किसी को कोई शक संदेह नहीं।जनता को भी वक्त, क्रमिक चक्र कि भाँति घूम -घूम कर प्रत्येक पांच साल बाद  अपने  आपको याचक नहीं बल्कि दाता के रूप में देखने का सौभाग्य देता है।  जहाँ जनता की ताज पोशी जनार्दन के रूप में की  जाती है। अपने भाग्य को कोसने वाले ओरों की तक़दीर बदलने को तैयार है। अभी आने वाले कुछ महीने में न जाने किनका किनका वक्त बदलने वाला है। पश्चिम वाले कहते है पूर्व कि ओर देखो और अपने यहाँ लोग गाँव कि ओर देख रहे है। गाँव से हमें कितना प्यार है ये तो इसी से जाहिर होता है कि अभी तक हमने बहुत सारे बदलाव उसमे गुंजाईश के बाद भी नहीं होने दिया।  हमारे गावों में  समझदार बसते है,बेसक शिक्षितों में वो इजाफा न हुआ जो कि कागज़ को काला कर सके । उनके समझदारी के ऊपर बड़े -बड़े बुद्धूजीवी भी हतप्रभ रह जाते है। दिमाग नहीं दिल से फैसला देते है। गाँव की  उर्वरक मिट्टी पोषित कर सभी के ह्रदय को विशाल बना देता है। इसलिए छोटी -छोटी बातों पर  गाँव वाले  दिमाग कि जगह   दिल को  तव्वजो देते है।बाकी जो  शहर से  आते है पता नहीं ? बुद्धिजीवी लोग रहते  है  जो हमेशा दिमाग की  ही सुनते है। 
                          युवा वर्ग उभर रहा है ,ये देश कि ओर और देश इनकी ओर निहार रहा है बीच में बैठे देश चलाने वाले दोनों  की ओर निहार रहे है। स्वाभाविक रूप से दोनों को एक साथ निहारना कठिन काम है। दोनों ही क्षुब्ध है। लेकिन मनाने का प्रयास चल रहा है। कुछ ही दिनों में दोनों  की तकदीर बदलने वाली है। टकटकी लगाये ये बदलाव कि बयार को कलमबद्ध करने वाले ज्यादा से ज्यादा संख्या में इस काम के लिए  नियुक्तियां से प्रतिनियुक्तियां किये जा रहे। आखिर हर व्यपार का आपना-अपना मौसम होता है। अब देश  की  जनता जागरूक हो गई है। देखिये अब सीधे मैदान में आ खड़े हुए है। जनता ही लड़ती है और जनता ही लड़ाती है। ये तो अपनी -अपनी किस्मत है कि किसके लिए जनता लड़ती है और किसको जनता लड़ाती है। भाग्य बदलने कि ताबीज सभी ने अपने अपने हाथों में ले रखे है। अब गला इन ताबीज के लिए कौन -कौन बढता है ये तो आने वाला समय ही बतायेगा।
                             देश के  सीमा की रक्षा करते -करते फिर भी मन में संदेह रह गया ,समझने में थोड़ी देरी अवश्य हुई किन्तु अब ज्ञात है कि अंदर ही ज्यादा ताकतवर दुश्मन बैठे है ,देखना है कि कैसे अब इनसे लोहा लिया जाता है। अनेकता में एकता है और एकता में भी अनेकता है ये मिसाल हम सदियों से देते आये है ,बस अब पुनः एक बार दोहराना है। इन दोनों से जिनका चरित्र मेल नहीं खाता है उनका अलग रहना ही ठीक है। उदार मन के स्वामी तो हम सदैव से ही रहे है ये तो अपनी धरोहर  है माफ़ी मांगने और माफ़ी देने की उदार /अनुदार सांस्कृतक विरासत को आखिर विशाल ह्रदय के स्वामी ही आलिंगन कर सकते है। बेसक कुछ लोग पेट कि अंतड़ियां गलने से काल के गाल में समां गए तो उसपर आखिर किसका  वश होगा। "होई है ओहि जो राम रची राखा " इन बातों से हमें शर्मिंदा नहीं होना चाहिए। 
                            आखिर हमने एक नये सुबह का सपना देखा है जहाँ घडी के साइरन बजते ही घर में जल रहे लालटेन कि लौ बुझा कर , कुल्हड़ में चाय पीने के बाद ,हल-बैल को छोड़ जो अभी भी बहुत कम लोगो के पास है ,रिक्शे और साईकिल  पर सवार होकर हाथों में झाड़ू लेकर देश कि हर गंदगी को साफ़ करते हुए बढ़ते जाए ,क्या सुन्दर दृश्य होगा जो इन स्वच्छ राहो पर जण -गण हाथी पर सवार हो हशियाँ -हथोड़ी के साथ काम पर एक नए भारत के निर्माण के लिए निकले  और रास्ते के किनारे -किनारे कीचड़ में उदय हो  रहे कमल नयनाभिराम दृश्य का सृजन कर रहे हो। बदलाव की  बयार है कही सपना हकीकत न बन जाए।      

Tuesday 25 February 2014

अहम्,

आज न जाने कैसे  
दोनों के अहम्
आपस में टकरा गए। 
निर्जीव दीवारें भी
इन कर्कश चीखों से
जैसे कुछ पल के लिए
थर्रा गए। 
एक दूसरे के नज़रों में 
अपनी पहचान खोने का गम था। 
"मैं" और "तुम" यादकर 
"हम" से मुक्त होने का द्वन्द था।   
अब चहारदीवारी में 
दो सजीव काया
निर्जीव मन से बंद थे। 
बंद थी अब आवाजे
ख़ामोशी का राज था। 
खूबसूरत कला चित्र भी
अब इन दीवारो पर भार था। 
कुछ देर पहले निशा पल में
जो गलबहियां थी। 
दो अजनबी अब पास-पास
युगों-युगों सी दूरियां थी। 
बुनते टूटते सपने पर भी
कभी तर्जनी एकाकार थे। 
समय के बिभिन्न थपेड़ो पर
मन में न कभी उद्विग्न विचार थे। 
वर्षो साथ कदम का चाल जैसे 
अचानक ठिठक गया। 
मधुर चल रही संगीत को 
श्मशानी नीरवता निगल गया। 
टकराते अहम् है जब 
मजबूत से रिश्ते दरक जाते है। 
धूं -धूं कर दिल से उठते धुएं 
कितने आशियाने जला जाते है। ।   

Saturday 22 February 2014

तंग कोठरी

ये  कोठरी 
कितनी तंग हो गई है 
यहाँ जैसे 
जगह कम हो गई है। 
कैसे मिटाऊँ किसी को यहाँ से 
ये मकसद अब 
शिक्षा के संग हो गई है। 
जीवन से भरे सिद्धांतो के ऊपर 
उलटी  धारा में चर्चा बही है  
बचाने वाला तो कोई है शायद 
मिटाने के कितने नए 
हमने यहाँ उक्तियाँ गढी है। 
कितने खुश होते है अब भी 
परमाणुओं की शक्ति है पाई 
जो घुट रहे अब तक 
इसकी धमक से 
तरस खाते होंगे 
जाने ये किसकी है जग हँसाई। 
अपनी ही हाथों से 
तीली सुलगा रहे सब 
जल तो रहा ये धरा आशियाना। 
घूंट रहे  इस धुँआ में 
सभी बैचैन है 
जाने कहाँ सब ढूंढेंगे ठिकाना। 
विचारों में ऐसी है 
जकड़न भरी ,
कोठरी में रहा न कोई 
रोशन, झरोखा  
किसको कहाँ से अब 
कौन समझाए 
परत स्वार्थ का सबपे 
कंक्रीट सा है चढ़ा। ।   

Tuesday 18 February 2014

प्रहसन

शाम कि श्याह छाँह
जब दिन दोपहरी में
दिल पर बादल कि तरह
छा कर  मंडराते है। 
जब सब नजर के सामने हो
फिर भी
नजर उसे देखने से कतराते है। 
सच्चाई नजर फेरने से
ओझल हो जाती है। 
ऐसा तो नहीं
पर देख कर न देखने कि ख़ुशी
जो दिल में पालते है। 
उनके लिए ये दुरुस्त नजर भी
कोई धोखा से कम तो नहीं
और अपने-अपने दुरुस्त नजर पर
हम सब नाज करते है। 
तडपते रेत हर पल
लहरों को अपने अंदर समां लेता है
पुनः तड़पता है
और प्यासे को मरीचिका दिखा 
न जाने कहाँ तक
लुभा ले जाता है। 
सब सत्य यहाँ
और क्या सत्य, शाश्वत प्रश्न  है ?
बुनना जाल ही तो कर्म 
फिर माया जाल  का क्या दर्शन है
हर किसी के पास डफली
और अपना-अपना राग है। 
अपने तक़दीर पर जिनको रस्क है
हर मोड़ पर मिलते है। 
मुठ्ठी भर हवा से फिजा कि तस्वीर
बदलने का दम्भ भरते है। 
कर्ण इन शोरों पर
खुद का क्रंदन ही सुनता है। 
वाचाल लव फरफराती है
पर मूक सा ही दिखता है। 
इस भीड़ में हर  भीड़ 
अलग -अलग ही नजर आता है
बेवस निगाहों कि कुछ भीड़ को बस  
प्रहसन का पटाक्षेप ही लुभाता है।  

Friday 14 February 2014

वेलेंटाइन डे

क्या विशेष है
ये प्रेम दिवस कैसा संदेश है ?
कण-कण में जहाँ प्रेम है रमता
सुदामा कि पोटली से अब तक
निर्झर प्रेम है झरता।
मीरा कि तान अब भी गुंजती है
कन्हैया को  गोपियाँ भी ढूंढती है।
हर उत्सव है सजाये
महीना दर महीना ख़ुशी मनाये।
प्रेम जब घट -घट में हो बसा
क्यों फिर दिन इन्तजार कराये। 
कब राम ने शबरी के बेर को
तौल कर मोला था
उत्कट प्रेम ने कभी यहाँ
अर्थ का द्वार न खोला था।
अब भी सजते है
प्रेम सिर्फ प्रेम में पूजते है।
जब शब्दो में समाया विकार है
प्रेम का अर्थ कुछ और भी स्वीकार है। 
रूखे कागज पर ही  इसे ढूंढेंगे
बाजारों में कीमत पर तौलेंगे।
पर प्रेम के लिए -
सुखी दिल कि क्यारीं को पनपायें 
मन के उपवन में संवेदनाएँ  जगाये
बसंत मतवाला हो हर पल गायेगा
सिर्फ आज क्यों हर दिन प्रेम गुनगुनाएगा। । 

Tuesday 4 February 2014

परछाई

सर्द हवा ने 
आंतो को जमा दिया 
भूख कुछ  जकड़  गई ,
नीले-पीले डब्बे 
रंग-बिरंगी दुनिया से निकल कर 
अपने आत्मा से अलग 
ठुकराये जाने के दुःख से कोने में गड़ी 
सूखे टहनियों सी हाथ के साथ 
कई अंजान से एक जगह मिलाप 
धूं -धूं  धधकता है। 
सुंगन्धो से मन गदगद 
सर्द हवा आंतो को बस 
ऐसे ही जकड़ रखो की ये आवाज न दे । । 
जब सूरज जकड़े गएँ 
तो इनकी औकात क्या ?
पर ये काल चक्र 
हर समय काल बनकर ही घूमता ,
इन हवाओ में न जाने क्यों 
उष्णता है रह रह कर फूंकता। 
फिर छल दिया 
प्रकृति के रखवालों ने 
नीले -पीले डब्बे कि जगह 
भर दिया फूलों से 
हरी-भरी गलियारों ने । 
आंत अब जकड़न से बाहर 
भूख से बेताब है,
धुंध से बाहर हर कुछ 
नए रंग-लिप्सा की आवाज है। 
पर ,ओह बसंत, क्या रूप है तेरा 
कैसे जानूं मैं 
आँखों पर अब तक 
आंतो की भूख  ने 
अपना ही परछाई बिठा रखा है। । 

Monday 27 January 2014

जीवन

जीवन 
दोनों के पास है
एक  है इससे क्षुब्ध
दूसरा है इससे मुग्ध
एक पर है भार बनकर बैठा
दूजा इसपर बैठकर है ऐंठा। 
जीवन 
दोनों के पास है,
एक ही सिक्के के,
दो पहलूँ कि तरह। ।
जीवन 
एक महल में भी कराहता है 
तो कहीं फूंस के छत के नीचे दुलारता है। 
कोई अमानत मान इसे संभाल लेता 
तो दूजा तक़दीर के नाम पर इसे झेलता। 
जीवन 
दोनों के पास है 
एक ही मयखाने के 
भरे हुए जाम और टूटे पैमाने की तरह। । 
जीवन 
मुग्ध सिद्धार्थ जाने क्यों
हो गया इससे अतृप्त,
अतृप्त न जाने कितने
होना चाहते इसमें तृप्त। 
जीवन 
दोनों के पास है ,
एक ही नदी के 
बहती धार और पास में पड़े रेत की तरह। ।
जीवन 
शीतल बयार है यहाँ
वहाँ चैत की दोपहरी,
वो ठहरना चाहे कुछ पल 
जबकि दूजा बीते ये घडी। 
जीवन 
दोनों के पास है ,
एक ही पेड़ के 
खिले फूल और काँटों की तरह। । 
एक ही नाम के 
कितने मायने  है ,
बदरंग से रंगीन 
अलग-अलग आयने है, 
लेकिन जीवन अजीब है 
बस गुजरती है जैसे घड़ी की  टिक-टिक। 
उसका किसी से 
न कोई मोह न माया है ,
वो तो गतिमान है उसी राहों पर 
जिसने उसे जैसा मन में सजाया है। । 

Sunday 26 January 2014

गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएँ

हर वर्ष जब दिन ये आता करते सब ये प्रण,
बदलेंगे हम देश का भाग्य देकर तन-मन-धन। ।
किन्तु इसके बाद फिर बिसरा देते सब  भाव,
तब तो  वर्षो बाद भी नहीं बहुत बदलाव। ।
चिंगारी साम्प्रदायिकता की जो सैतालिस में भड़की
आज तलक है बुझी कहाँ रह-रह कर है धधकी। ।
जात-पात के नाम पे करते बड़ी-बड़ी जाप
किन्तु फिर भी जाने क्यों नहीं मिटा ये श्राप। ।
गरीबी का हो उन्मूलन गाते सब ये गान
पर भूखो न जाने कितने त्याग दिये है प्राण। ।
इतने वर्षों बाद भी ऐसे है हालात 
हो कोई भी, गण हम, चिंता की ये बात।।
चढ़ शूली जो सपना देखे आजादी के परवाने 
बदले हम तस्वीरे जिससे व्यर्थ न जाए बलिदाने। । 
बीति ताहि बिसार के अब आगे कि सोंचे 
विश्व गुरु हो पुनःप्रतिष्ठापित आओ कर्मों से इसे सींचे। । 

------------सभी को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ  --------------- 

Wednesday 22 January 2014

क्षुधा


धड़कने धड़कती है
पर कोई शोर नहीं होता
रेंगते से जमीं पर
जैसे पाँव के नीचे  से
जीवन  निकल रहा ।
यहाँ ये किसका वास है। ।  
खुद से ही 
रोज का संघर्ष
देखते है जिंदगी जीतती है
या हार जाये भी तो 
जीत का है भान करता ।
ये किसका ऐसा अहसास है। ।  
प्रारब्ध का बोध देती 
तृष्कृत रेखा से पार 
समतल धरा के ऊपर 
अदृश्य कितनी गहरी ये खाई ।  
किसके परिश्रम का ये  सार है  । ।
अनवरत ये चल रहा 
बंटा हुआ  ह्रदय कपाट 
शुष्कता से अब तक सोखता 
जाने कैसे है पनपा ये  अतृप्त विचार।  
कैसे बुझेगी क्षुधा किसका ये भार है। । 

Monday 20 January 2014

एक किसान

चित्र;गूगल से
हर समय देखता उसके तन पर
बस एक ही कपडा।
मैं  किंचित चिंतित हो पूछता जो
वो कहता -
हर मौसम से है उसका
रिश्ता गहरा।
बारिस के  मौसम से
बदन की गंदगी धूल जाती है,
मौसम कि गर्मी से ज्यादा तो
पेट कि अगन झुलसाती है,
जुए से जुते बस चलते है,
फिर सर्दी में भी बदन दहकते है। 
फिर मैंने पूछा -
क्यों शाम होते ही
यूँ बिस्तर पे चले जाते।
वो कहता -
क्या करूँ
मेरा मित्र गाय-बैल ,चिड़ियों की चहचहाट
जो शाम के बाद साथ नहीं निभाते।
सुबह इतनी जल्दी जाग कर
क्या करना है
वो कहता -
घूमते है हरि ब्रह्म मुहूर्त में
बस उनसे ही मिलना है।
क्यों इस खेत-खलिहान में
अब तक हो उलझे,
कुछ करो ऐसा की
आने वाला जिंदगी सुलझे।
मुस्कुरा कर वो कहता-
किसी को तो इस पुण्य का
लाभ कामना है
सब समझे कहाँ माँ के आँचल में 
ख़ुशी का जो खजाना है। 
बेसक अर्थ में जो 
इसका हिसाब लगाएगा ,
इन बातो को 
वो नहीं समझ पायेगा। 
जीने के लिए तो 
सभी कुछ करते है,
पर सिर्फ मुद्रा से ही 
पेट नहीं भरते है। 
हमारे उपज  से ही
सभी कि क्षुदा शांत होती है ,
तृष्णा फिर हजार 
सभी मनो में जगती है। 
वो दिन भी सोचो 
जब विभिन्न योग्यताओं  के ज्ञानी होंगे ,
पर खेती से अनभिज्ञ सभी प्राणी होंगे। 
कर्म तो कर्म है 
उसे करना है 
पर निजहित में 
परहित का भी 
ध्यान रखना है। 
सब इस भार को नहीं उठा पाते 
भगवान् इसलिए किसान बड़ी जतन से बनाते।।

Saturday 18 January 2014

शिक्षा और दुरियाँ

घर के रास्ते
बस चौराहे पर मिलते थे ,
दुरी राहो की
दिल में नहीं बसते  थे।
मेरी माँ कभी
अम्मी जान हो जाती थी
तो कभी अम्मी माँ रूप में नजर आती थी।
नामों के अर्थ का
कही कोई सन्दर्भ न था ,
सेवई खाने से ज्यादा
ईद का कोई अर्थ न था।
उसका भी आरती के थाली पे
उतना ही अधिकार था ,
कोई और ले ले प्रसाद पहले
ये न उसे स्वीकार था।

पैरो कि जूती
बराबर बढ़ रही थी,
मौसम बदल कर लौट आता
किन्तु उम्र बस  बढ़ रही थी।
तालीम अब हम
दोनों पाने लगे ,
बहुत अंजानी बातें
अब समझ हमें आने लगे।
ज्यों-ज्यों ज्ञान अब बढ़ता गया,
खुद में दिल बहुत कुछ समझाता गया।

घर के रास्ते से ये चौराहे की दुरी
कई दसको से हम नापते रहे,
अब भी कुछ वहीँ खरे है ,
दसको पहले थे जहाँ से चले।
घर ,रास्ते सब वहीँ  पड़े है ,
पर नई जानकारियों ने नये अर्थ गढ़े है।
टकराते चौराहे पर
अब भी मिलते  है ,
पर ये शिक्षित होंठ
बड़े कष्ट से हिलते है।

किन्तु वो निरा मूरखता की बातें ,
जाने क्यों दिल को है अब भी सताते।
वो दिन भी आये जो बस ये ही पढ़े हम
मानव बस मानव नहीं कोई और धर्म। । 

Thursday 16 January 2014

पन्नों में दबी चींख

गर्म हवा जब मचलती है ,
सारे पन्ने फरफरा उठते है। 
एक बार फिर लगता है कि  
जिंदगी ने जैसे आवाज दी। 
हम ढूंढते है ,खोजते है, 
गुम साये को 
आज में तलाशते है। 
ये पन्नों कि फरफराहट 
चींख सा लगता है। 
दबे शिला में  जैसे कोई घुँटता है।  
अक्षरों कि कालिख , 
स्याह सा छा जाता  है।  
धुंधली तस्वीर 
आँखों में कई उतर आता है।  
कितने ही साँसों का ब्यौरा 
बचपन कि किलकारी 
यौवन का सपना 
धड़कते दिल से इंतजार 
शौहर का करना 
बूढ़े नयनों में आभास 
समर्थ कंधो की 
जो छू ले नभ वैसे पंजों की। 
जो धड़कते थे , जाने कैसे रुक गए  
कारवां ख़ुशी के  
बीच सफ़र में ही छूट गए ।   
हर एक की कहानी 
इन पन्नों में सिमटी है ,
एक नहीं अनेकों  
रंग बिरंगे जिल्द में ये लिपटी है। 
सागवान के मोटे फ्रेमों में 
पारदर्शी शीशे के पीछे 
किसी कि साफगोई, 
या किसी चाटुकारिता कि किस्सागोई ,
न  जाने कितनी अलमारियाँ 
सजी-सजी सी पड़ी है। 
प्रगति और विचारवानो के बीच 
ड्राइंग रूम कि शोभा गढ़ी है। 
किन्तु बीच -बीच में 
न जाने कैसी हवा चलती है ,
इन आयोगों के रिपोर्ट में दबी 
आत्मा कहर उठती है। 
वो चीखतीं है ,चिल्लाती है ,
काश कुछ तो ऐसा करो  
की  इन पन्नों को 
रंगने कि जरुरत न पड़े। 
हम तो इन पन्नों में दबकर 
जिसके कारण अब तक मर रहे ,
उन कारणों से कोई 
अब न मरें। ।

Monday 13 January 2014

संक्रांति का संक्रमण


कर्म में लीन 
पथ पर तल्लीन 
रवि के चक्र से बस इतना समझा 
दक्षिणायण  से  उत्तरायण में
प्रवेश कि बस  है महत्ता। । 

ग्रहों के कुचक्र हमसे ओझल  
जो उसे बाधित नहीं कर पाता  
मास दर मास न विचलित हो 
पुनः धरा में नव ऊर्जा का  
तब संचार है कर पाता। । 

हम उस प्रयास को 
भरपूर मान देते है 
लोहड़ी ,खिचड़ी ,पोंगल मना  
इस संक्रमण को 
किसी न किसी रूप में सम्मान देते है। । 

बिंदु और जगहवार
उसकी पहचान करते है  
बेवसी और ख़ामोशी से  
कल्पित हाथ हर पल   
जहाँ उठते और गिरते है।। 

कि आज का ये दिन 
पिछले मासों के कालिख भरी पसीनो को 
आज का स्नान धो देगा 
ये कटोरी में गिरते तिल के लड्डू 
इस आह में ख़ुशी भर देगा। । 

चलो संक्रांति के इस संक्रमण को 
इस विचार से मुक्त करे 
हाथ उठे न कि उसमे 
हम कुछ दान करे 
सतत प्रयास हो जो मानव सम्मान करें। ।

(सभी को मकर संक्रांति कि हार्दिक शुभकामना )

Saturday 4 January 2014

कल क्या किया ?

                    आज सप्ताह का पहला दिन ऑफिस कि दिनचर्या से निपट कर सदा कि भांति मोटर साईकल से निकलने ही वाला था कि विभाग के अन्यत्र  ऑफिस के  एक परिचित कार्मिक  मिल गए। मित्र नहीं है किन्तु हमदोनों के व्यवहार मित्रवत सा ही है।कुसमय के मिलन ने  दिल में कोफ़्त चेहरे ने मुस्कान बिखेरा।  औपचारिकता निभाते हुए पूछा -और क्या हाल है?
उनमे औपचारिकता कम था बेतक्लुफ्फ़ अंदाज में जबाव मिला- बढ़िया
आप कैसे है ? -मैंने भी कहा ठीक-ठाक
अन्य सहकर्मी के अभिवादन में दृष्टि उनसे हटाते ही  बोले  -लगता है लेट हो रहे है श्रीमतीजी को समय दे के आये है क्या ?
कुछ सही होते हुए भी सहज दिखावा कर  मैंने कहा -नहीं ऐसी कोई बात नहीं ,समय क्या देना हर रोज तो यही समय होता है। गुजरते हुए सभी जल्दी में दिख रहे थे।
उन्होंने इसपर कोई खास ध्यान नहीं दिया।
 मेरी आँखों में झांककर पूछा -और कल क्या किया ?
बड़ा अजीब सा प्रश्न मै असहज हो कर पूछा -मैं कुछ समझा नहीं।
उन्होंने मेरी स्थिति भांप ली। अरे नहीं आप से मेरा मतलब था कि इस ऑफिस की दिनचर्या से कुछ अलग भी करते है या इसी में उलझ कर रह जाते है।
समय अपनी रफ़्तार से निकल रहा था मैं  मन ही मन उसे कोस रहा था। कम्बख्त निकलते समय क्यों मिल गया। मैंने मुस्कुराने का प्रयास करते हुए कहा- और कुछ काम करके नौकरी से निकलवाने का इरादा है क्या?
अरे नहीं -आप तो कुछ और ही समझ बैठे।
मैं बैठा कहाँ था अच्छा खासा जाने को तैयार खड़ा था किन्तु ये नाचीज कहाँ से आ टपका। मैंने बात समाप्त करने के इरादे से कहा -नहीं कल और कुछ नहीं किया और   मोटर साईकल की सीट पर बैठ गया। उन्होंने इसको नजर अंदाज करते कहा -नहीं मेरा मतलब था कि इस दिनचर्या से अलग और कुछ नहीं करते। लगता है ये खुन्नस निकाल रहा है और वेवजह इतनी सर्दी में मुझे विलम्व करा रहा है। थोड़ा चिढ़ते हुए मैंने कहा नहीं करते है न -बाजार जाता हूँ ,बच्चो को घर में पढ़ाता हूँ और कल भी ये सभी काम किये थे,आस-पास परिवार के साथ घूम भी आये इससे ज्यादा कुछ नहीं  ।
इसके अलावा और कुछ नहीं।काफी दिनों बाद उनसे मुलाकात हुई थी ,मन ही मन मैंने सोचा की लगता है सर्दी कि वजह से इनका दिमाग जम गया है। उल-जलूल बाते कर रहे है।
इसके अलावा और क्या काम होता है आकस्मिक छोड़ कर और वक्त किसी काम के लिए मिलता कहाँ । थोड़ी शुष्कता आवाज में आ गई।रोड लाईट ने रौशनी बिखेरना शुरू कर दिया।
अरे नहीं आप तो नाराज हो गए। मैं तो बस ऐसे ही पूछ बैठा-मुस्कुरा कर कहा।
पता नहीं क्यों पुनः   मोटर साईकल को स्टैंड पर लगा खड़ा हो गया।अपनी खींझ को दबाकर लगभग चिढ़ते हुए  पूछा -किन्तु आपने अभी तक नहीं बताया की आपने कल क्या किया ?
मुस्कुराते हुए कहा -आपने अब तक पूछा कहाँ। मैं झेंप गया। सिहरन शरीर में दस्तक देने लगा।
उन्होंने फिर कहा -बगल के बस्ती में अपने मुहल्ले से सारे पुराने कपडे इक्क्ठा कर बाटने गया था। सर्दी बहुत बढ  गई है न ,अभी फिर वही जाना है कल थैले छोड़ आया था  अगले हफ्ते फिर जरुरत पड़ेगी । यही तो एक अवकाश का दिन होता है अपने काम के अलावा थोडा बहुत प्रत्येक सप्ताह ये कुछ जरुरत मंदो के हिसाब से करने कि कोशिश करता हु,अपने परिवार के भी समय का ध्यान रखते हुए । ये काम तो चलता ही रहेगा और  दिन में चौबीस घंटे होते है ये तो सभी को पता है,उसी घंटो में से कुछ समय ऐसे लोगो के लिए निकालने की कोशिश करता हूँ । उनकी नजर मेरे चेहरे पर था और मेरा चेहरा सर्द। अच्छा अभी जरा बिलम्व हो रहा हूँ
उन्होंने मोटर साईकल चालू कर शुभ रात्रि कहा और चल दिए। पता नहीं क्यों मैं अनमयस्क सा उन्हें जाते हुए देख रहा  था। ……सर्दी से ठिठुरते  रोड किनारे के  कुछ चेहरे मेरे आँखों में परावर्तित होने लगे।  

Wednesday 1 January 2014

नव वर्ष सबको मंगलमय हो।

नव वर्ष सबको मंगलमय हो

काल चक्र के  नियत क्रम में,
समां गए गत वर्ष अनंत  में,
क्या खोया क्या पाया हमने,
करे विवेचन स्व के मन में। ।

नए ओज उत्साह का भान कर,
स्व से विमुक्त हम का मान कर,
सम्पूर्ण धरा सुख से हो संवर्धित,
मनुज सकल को हो सब अर्पित। ।

घृणा ,क्रोध,सब असुर प्रवृति,
दिन-हिन् दारिद्र्य सी वृति,
बीते काल समाये गर्त में,
न हो छाया इसकी नव वर्ष में। ।

मंगल मन मंगल सी भावें,
ह्रदय मनोरथ और जो लावें,
कृपा दृष्टि सदा नभ से बरसे,
   न कोई वंचित उत्कर्ष मन हर्षे। । 

कटु सत्य यथार्थ भी कुछ है, 
नागफनी, कहीं चन्दन वृक्ष है ,
पर जिजीविषा हर जगह अटल है ,
घना तिमिर अरुणोदय पल है। । 

यश अपशय से ऊपर उठकर ,
सहज भाव आत्म सुख से भरकर, 
नव आलोक मुदित सब मन हो 
नव वर्ष सबको मंगलमय हो। । 

Saturday 28 December 2013

आने वाला नव वर्ष

                                        अस्ताचलगामी रथ पर आरूढ़  काल  चक्र अपने पथ पर सतत गतियमान अंतिम परिदृश्य को नाट्य मंचन पर सफल सम्प्रेषण कर अतीत के गर्भ में वर्ष २०१३ लगभग  विलोपित होने के कगार पर  .......।  नूतन किशलय से सुस्सजित,स्वर्ण आवरण से विभूषित नव् नव वर्ष २०१४  के प्रथम नव किरण के सुस्वागत हेतु विहंग दल कलरव को तत्पर  ..........।   अनंत उम्मीदो के दामन संकुचित मन से थामे,हर्ष के अतिरेक संभानाओं के असीम द्वार के ऊपर चक्षु अधिरोपित किये ,श्याम परछाई को गीता मर्म समझ कर्म कि गांडीव पर नूतन प्रत्यंचा का श्रृंगार, सफलता के सोपान पर विजय पताका आशाओ के डोर के साथ नभ में बल खाने को मन आतुर … ………  । आशा से निराशा का संचार, अवसाद से विलगाव, चुके लक्ष्य को पुनः भेदने कि मंशा, सुप्त  ह्रदय में ओज का भान, नव का आगमन भविष्य के गर्भ में समाये मणिकाओ का वरण,क्षितिज के अंतिम बिंदु तक छू लेने की  आश का प्रस्फुटन  अनगिनत लोचन में परिलक्षित ………।  ।
                             देश और काल से इतर उन्नत मानव की  गरिमा मानव के द्वारा ही बिभिन्न द्वारों पर ठोकर खाती हिंसा कि घृणित विकृत सोच से कुचली हुई महसूस करती आँखें , जहाँ नवीन का प्रकाश और विगत के तम में न भेद लक्षित नहीं है और न ही इसे भेद कर पाने की इच्छा शक्ति , जो अपने भाग्य की अदृश्य रेखा को वर्त्तमान के धुंधलेपन में खोजने के अलावा कही शिकायत नहीं करते ,उन आँखों में नए अरुणोदय से नए विश्वास का सृजन हो   ……।       विकास के अवधारणा से  गर्वित  जन में , खुद को इस गौरवान्वित  मानव प्रतिष्ठा से वंचित के प्रति धारणा में सकारात्मक बदलाव उनके पारिस्थितिक और मानसिक उन्नत्ति में सहायक बने  वर्ष के रूप में  प्रतिष्ठित हो इस विश्वास  का संचार हो …....... …।  
                          इच्छाओ की अनंत विमाएं हर वक्त किसी न किसी कोण से जागृत होती है और काल की वृति अपने मनोयोग से गुजरती जिससे पहुँच अधूरा रह जाता  जो  अपूर्णता का भान कराती है.………।   शायद इसी अपूर्णता को भरने का क्रम ही जिंदगी है और नव दिवस का आगमन इस उत्साह को पुनः ह्रदय लक्ष्य कर उस अपूर्णता को पूर्ण करने का सांकेतिक परिघोषणा……   ।   आने वाले नव  किरण की  छटा बिखरते स्व-कल्याण से अभिमत मन में सम्पूर्ण लोक के प्रति समदृष्टि का संचार सदैव से समरूप में धरा पर बिखरती किरणो से हर किसी के ह्रदय में उत्त्पन्न हो.……… । नव प्रभात की  बेला विगत के स्याह अनुभव, अंतर्मन के पारस्परिक द्वन्द का दोहन कर असीम ऊष्मा का नव संचार करे........... । नव वर्ष २०१४ का आगमन सभी को  सांसारिक सुख से संवर्धित करने  के साथ-साथ नए आत्मिक उत्थान को प्रेरित  कर धरा के विभिन्न वर्गों में परस्पर आत्मिक सम्बन्धो के  संचार से वसुधैव कुटुंबकम्ब की दिशा में कोई नया सूत्र प्रतिपादित करेगा,  इसी आशा एवं विश्वास के साथ सभी को आने वाले  नव वर्ष की  हार्दिक शुभकामना  …………