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Saturday 4 January 2014

कल क्या किया ?

                    आज सप्ताह का पहला दिन ऑफिस कि दिनचर्या से निपट कर सदा कि भांति मोटर साईकल से निकलने ही वाला था कि विभाग के अन्यत्र  ऑफिस के  एक परिचित कार्मिक  मिल गए। मित्र नहीं है किन्तु हमदोनों के व्यवहार मित्रवत सा ही है।कुसमय के मिलन ने  दिल में कोफ़्त चेहरे ने मुस्कान बिखेरा।  औपचारिकता निभाते हुए पूछा -और क्या हाल है?
उनमे औपचारिकता कम था बेतक्लुफ्फ़ अंदाज में जबाव मिला- बढ़िया
आप कैसे है ? -मैंने भी कहा ठीक-ठाक
अन्य सहकर्मी के अभिवादन में दृष्टि उनसे हटाते ही  बोले  -लगता है लेट हो रहे है श्रीमतीजी को समय दे के आये है क्या ?
कुछ सही होते हुए भी सहज दिखावा कर  मैंने कहा -नहीं ऐसी कोई बात नहीं ,समय क्या देना हर रोज तो यही समय होता है। गुजरते हुए सभी जल्दी में दिख रहे थे।
उन्होंने इसपर कोई खास ध्यान नहीं दिया।
 मेरी आँखों में झांककर पूछा -और कल क्या किया ?
बड़ा अजीब सा प्रश्न मै असहज हो कर पूछा -मैं कुछ समझा नहीं।
उन्होंने मेरी स्थिति भांप ली। अरे नहीं आप से मेरा मतलब था कि इस ऑफिस की दिनचर्या से कुछ अलग भी करते है या इसी में उलझ कर रह जाते है।
समय अपनी रफ़्तार से निकल रहा था मैं  मन ही मन उसे कोस रहा था। कम्बख्त निकलते समय क्यों मिल गया। मैंने मुस्कुराने का प्रयास करते हुए कहा- और कुछ काम करके नौकरी से निकलवाने का इरादा है क्या?
अरे नहीं -आप तो कुछ और ही समझ बैठे।
मैं बैठा कहाँ था अच्छा खासा जाने को तैयार खड़ा था किन्तु ये नाचीज कहाँ से आ टपका। मैंने बात समाप्त करने के इरादे से कहा -नहीं कल और कुछ नहीं किया और   मोटर साईकल की सीट पर बैठ गया। उन्होंने इसको नजर अंदाज करते कहा -नहीं मेरा मतलब था कि इस दिनचर्या से अलग और कुछ नहीं करते। लगता है ये खुन्नस निकाल रहा है और वेवजह इतनी सर्दी में मुझे विलम्व करा रहा है। थोड़ा चिढ़ते हुए मैंने कहा नहीं करते है न -बाजार जाता हूँ ,बच्चो को घर में पढ़ाता हूँ और कल भी ये सभी काम किये थे,आस-पास परिवार के साथ घूम भी आये इससे ज्यादा कुछ नहीं  ।
इसके अलावा और कुछ नहीं।काफी दिनों बाद उनसे मुलाकात हुई थी ,मन ही मन मैंने सोचा की लगता है सर्दी कि वजह से इनका दिमाग जम गया है। उल-जलूल बाते कर रहे है।
इसके अलावा और क्या काम होता है आकस्मिक छोड़ कर और वक्त किसी काम के लिए मिलता कहाँ । थोड़ी शुष्कता आवाज में आ गई।रोड लाईट ने रौशनी बिखेरना शुरू कर दिया।
अरे नहीं आप तो नाराज हो गए। मैं तो बस ऐसे ही पूछ बैठा-मुस्कुरा कर कहा।
पता नहीं क्यों पुनः   मोटर साईकल को स्टैंड पर लगा खड़ा हो गया।अपनी खींझ को दबाकर लगभग चिढ़ते हुए  पूछा -किन्तु आपने अभी तक नहीं बताया की आपने कल क्या किया ?
मुस्कुराते हुए कहा -आपने अब तक पूछा कहाँ। मैं झेंप गया। सिहरन शरीर में दस्तक देने लगा।
उन्होंने फिर कहा -बगल के बस्ती में अपने मुहल्ले से सारे पुराने कपडे इक्क्ठा कर बाटने गया था। सर्दी बहुत बढ  गई है न ,अभी फिर वही जाना है कल थैले छोड़ आया था  अगले हफ्ते फिर जरुरत पड़ेगी । यही तो एक अवकाश का दिन होता है अपने काम के अलावा थोडा बहुत प्रत्येक सप्ताह ये कुछ जरुरत मंदो के हिसाब से करने कि कोशिश करता हु,अपने परिवार के भी समय का ध्यान रखते हुए । ये काम तो चलता ही रहेगा और  दिन में चौबीस घंटे होते है ये तो सभी को पता है,उसी घंटो में से कुछ समय ऐसे लोगो के लिए निकालने की कोशिश करता हूँ । उनकी नजर मेरे चेहरे पर था और मेरा चेहरा सर्द। अच्छा अभी जरा बिलम्व हो रहा हूँ
उन्होंने मोटर साईकल चालू कर शुभ रात्रि कहा और चल दिए। पता नहीं क्यों मैं अनमयस्क सा उन्हें जाते हुए देख रहा  था। ……सर्दी से ठिठुरते  रोड किनारे के  कुछ चेहरे मेरे आँखों में परावर्तित होने लगे।  

Sunday 18 August 2013

पटाछेप

                            कब से इंतजार  कर रही थी ,कितना समय लगा दिया।स्वर के अन्तर्निहित प्रेम में रोष का आवरण था ।
              और ये आज  यहाँ से गुजरती ट्रेन पता नहीं कानो को क्यों रौंद रही थी  ,पहले तो इसकी धर-धर करती आवाज दिल को कितना रोमांचित करता  था, पर आज ये पटरियो से टकराती पथ्थरे लगता था जैसे कि  दिल पे ही चोट कर रही है। शायद तुम्हारे आने में विलम्ब से ये दिल कुछ घबरा सा गया होगा। तुमको पता है थोड़ी देर पहले कितने-काले -काले बादल घिड़ आये थे ,तुम्हारे  आते ही न जाने  कहा चले गए। कमबख्त कुछ फुहारे तो छोड़ जाता ,खामोखाह कुछ देर के लिए आशाओ को  धुंधला कर गया। आहा क्या मजा आता जब हम साथ साथ भीगते।  वर्षा की बुँदे जब-जब गुंथे हुए हाथो पे टपकती है तो उसकी उसकी धार उंगलियो से सीधे दोनों के  दिलो तक पहुचती है,जिससे रक्तो में स्नेह का मिलन हो जाता है। बोलते -बोलते चेहरा  जैसे सूर्यमुखी की तरह खिल उठा । किन्तु वह  अनमस्यक सा उसे देख रहा था


                        खैर चलो तुम आ गए पता नहीं दिल में क्या -क्या ख्याल उठ रहे थे।  सांसो की धड़कन में जैसे लगता था कि कोई विरहा  राग की आलाप हो,धड़कन की ध्वनि न होकर आलाप की आरोहन -अवरोहन ज्यादा लग रही थी,थोड़ी देर के लिए पलको  में प्रेम-आलिंगन भी हो गया ,लगा की गहरी सुरंग  के भंवर-शून्य में कुछ मेरा अपना छीनता  जा रहा है  । ऐसी बातो से घबराहट तो होती है न बोलो,देखो तब से ऐसे ही  बैठी हूँ । पलकों को सजा दे रखी है अपलक बस तुम्हारी राह को ही निहारे।   कितनी मुर्ख हूँ  मै  और ये मन भी न  जाने क्या-क्या सोचने बैठ जाता है।अब मन का क्या, उसे तो सभी बावरा ही समझते, मेरा कोई अनोखा तो है नहीं जिसमे बसता  है उसीको देखना चाहता है।  नहीं तो छिप -छिप कर यूँ ही आसमान को तो न निहारता ?लहरे क्यों बार-बार तट की ओर भागती? जानते हो हवा से सुखी पत्तीयाँ  क्यों खड़खड़ाती है, उसको लगता है की अभी तक तो चलो टूटने के बाद भी अपने पेड़ के आगोश में था  किन्तु जैसे ही हवा चलती है बिछोह के डर से उनकी आत्मा चिल्ला उठती है। देखो न पहले भी तो कई बार इंतजार कराये तुमने पर तब तो ऐसे उल जुलूल ख्याल मन में न आया कभी , किन्तु आज,स्वयं से प्रश्न … नहीं …. निगाह तो उसपे जमी थी।
                       आज उसको निर्णय का इंतजार था। प्रेम के लिए निर्णय जरुरी नहीं है किन्तु मिलन में बहुतो की निर्णय और अधिकार स्वयं सिद्ध होता है। आज  भावनाओ का निस्तारण सामाजिक रंग -पट के कलाकारों के द्वारा होना था, पट-कथा जिसकी शुरुआत इन दोनों ने की थी उसका अंतिम दृश्य को चंद लोगो  को लिखना था या शायद लिखा जा चूका था जिसे सुनाने के लिए उसे बुलाया गया था।  बेशक प्रेम का कोई रूप न हो वो निराकार हो , लेकिन अभिवयक्ति जैसे -जैसे  साकार होती जाती है मानदंडो की अलग-अलग लाक्षा गृह  की कोठरियो  से गुजरते हुए साबित करना पड़ता है की  पारिवारिक मर्यादा , सामाजिक रीति-नियम कही प्रेम की ऊष्मा-आँच से गल कर ढीले तो नहीं पर जायेंगे।                            
              अरे तुम कुछ बोलते ही नहीं। किस सोच में डूबे गए।
       उसने उंगलियों के गठबंधन से अपने उंगलियो को आजाद या किसी के  पराधीन किया। धीरे -धीरे कदम वापिस उसी ओर बढ चले जिधर से आया था।
         उसके पास अब कुछ समझने को नहीं था ,बस उसके कदमो  के निशां अपलक देख रही थी।
         पुनः बादल घिर  आये थे  और रेलगाड़ी धर-धर कर वैसे ही गुजर रही थी।
लगता है  इतना सफ़र तय करने के बाद भी प्रेम कुछ  बन्धनों का घृणित पात्र अब भी बना हुआ है। शायद वो बताना चाह रहा था की मर्यदाओ का प्रेम मिलकर उसके प्रेम को लील गया,किन्तु बोल न पाया। बगल से गुजरती रेलगाड़ी कही दूर किन्तु उसकी आवाज कानो में जैसे और तेजी से कौंधते जा रही थी। 

पटाछेप

                            कब से इंतजार  कर रही थी ,कितना समय लगा दिया।स्वर के अन्तर्निहित प्रेम में रोष का आवरण था ।
              और ये आज  यहाँ से गुजरती ट्रेन पता नहीं कानो को क्यों रौंद रही थी  ,पहले तो इसकी धर-धर करती आवाज दिल को कितना रोमांचित करता  था, पर आज ये पटरियो से टकराती पथ्थरे लगता था जैसे कि  दिल पे ही चोट कर रही है। शायद तुम्हारे आने में विलम्ब से ये दिल कुछ घबरा सा गया होगा। तुमको पता है थोड़ी देर पहले कितने-काले -काले बादल घिड़ आये थे ,तुम्हारे  आते ही न जाने  कहा चले गए। कमबख्त कुछ फुहारे तो छोड़ जाता ,खामोखाह कुछ देर के लिए आशाओ को  धुंधला कर गया। आहा क्या मजा आता जब हम साथ साथ भीगते।  वर्षा की बुँदे जब-जब गुंथे हुए हाथो पे टपकती है तो उसकी उसकी धार उंगलियो से सीधे दोनों के  दिलो तक पहुचती है,जिससे रक्तो में स्नेह का मिलन हो जाता है। बोलते -बोलते चेहरा  जैसे सूर्यमुखी की तरह खिल उठा । किन्तु वह  अनमस्यक सा उसे देख रहा था


                        खैर चलो तुम आ गए पता नहीं दिल में क्या -क्या ख्याल उठ रहे थे।  सांसो की धड़कन में जैसे लगता था कि कोई विरहा  राग की आलाप हो,धड़कन की ध्वनि न होकर आलाप की आरोहन -अवरोहन ज्यादा लग रही थी,थोड़ी देर के लिए पलको  में प्रेम-आलिंगन भी हो गया ,लगा की गहरी सुरंग  के भंवर-शून्य में कुछ मेरा अपना छीनता  जा रहा है  । ऐसी बातो से घबराहट तो होती है न बोलो,देखो तब से ऐसे ही  बैठी हूँ । पलकों को सजा दे रखी है अपलक बस तुम्हारी राह को ही निहारे।   कितनी मुर्ख हूँ  मै  और ये मन भी न  जाने क्या-क्या सोचने बैठ जाता है।अब मन का क्या, उसे तो सभी बावरा ही समझते, मेरा कोई अनोखा तो है नहीं जिसमे बसता  है उसीको देखना चाहता है।  नहीं तो छिप -छिप कर यूँ ही आसमान को तो न निहारता ?लहरे क्यों बार-बार तट की ओर भागती? जानते हो हवा से सुखी पत्तीयाँ  क्यों खड़खड़ाती है, उसको लगता है की अभी तक तो चलो टूटने के बाद भी अपने पेड़ के आगोश में था  किन्तु जैसे ही हवा चलती है बिछोह के डर से उनकी आत्मा चिल्ला उठती है। देखो न पहले भी तो कई बार इंतजार कराये तुमने पर तब तो ऐसे उल जुलूल ख्याल मन में न आया कभी , किन्तु आज,स्वयं से प्रश्न … नहीं …. निगाह तो उसपे जमी थी।
                       आज उसको निर्णय का इंतजार था। प्रेम के लिए निर्णय जरुरी नहीं है किन्तु मिलन में बहुतो की निर्णय और अधिकार स्वयं सिद्ध होता है। आज  भावनाओ का निस्तारण सामाजिक रंग -पट के कलाकारों के द्वारा होना था, पट-कथा जिसकी शुरुआत इन दोनों ने की थी उसका अंतिम दृश्य को चंद लोगो  को लिखना था या शायद लिखा जा चूका था जिसे सुनाने के लिए उसे बुलाया गया था।  बेशक प्रेम का कोई रूप न हो वो निराकार हो , लेकिन अभिवयक्ति जैसे -जैसे  साकार होती जाती है मानदंडो की अलग-अलग लाक्षा गृह  की कोठरियो  से गुजरते हुए साबित करना पड़ता है की  पारिवारिक मर्यादा , सामाजिक रीति-नियम कही प्रेम की ऊष्मा-आँच से गल कर ढीले तो नहीं पर जायेंगे।                            
              अरे तुम कुछ बोलते ही नहीं। किस सोच में डूबे गए।
       उसने उंगलियों के गठबंधन से अपने उंगलियो को आजाद या किसी के  पराधीन किया। धीरे -धीरे कदम वापिस उसी ओर बढ चले जिधर से आया था।
         उसके पास अब कुछ समझने को नहीं था ,बस उसके कदमो  के निशां अपलक देख रही थी।
         पुनः बादल घिर  आये थे  और रेलगाड़ी धर-धर कर वैसे ही गुजर रही थी।
लगता है  इतना सफ़र तय करने के बाद भी प्रेम कुछ  बन्धनों का घृणित पात्र अब भी बना हुआ है। शायद वो बताना चाह रहा था की मर्यदाओ का प्रेम मिलकर उसके प्रेम को लील गया,किन्तु बोल न पाया। बगल से गुजरती रेलगाड़ी कही दूर किन्तु उसकी आवाज कानो में जैसे और तेजी से कौंधते जा रही थी। 

Monday 12 August 2013

निर्वात

इस तरह क्या देखते हो ?क्या देखने से बात बदल जाएगी।
 हा क्यों नहीं। ऐसी कौन सी बात है जो चिर-स्थाई  रहती है. वक्त के आँधी में कुछ उड़ जाते है नहीं तो समय काटता भी है और उसे गलाता भी है. उसे पुनः कोई न कोई तो आकार लेना ही है. निराकार तो मन भी नहीं बस उसको ढूडना है । 
तो क्या तुम अब भी देख पा  रहे हो की इसमें अभी भी तुम्हारे लिए कुछ रखा है.। 
अंतर्मन का रास्ता तो इसी बार्यह चक्षु से होकर जाता है।  मै  उसमे झाकने की कोशिश  कर रहा हु.शायद अब भी कोई कोना  ऐसा हो जहा तुमने कुछ जगह बचा रखी हो.।पहले  नजरो में तो तस्वीर कई की झलकती थी,मुझे लगता था मै उसमे धुंधला दीखता हु। 
इस तरह मेरा  अपमान  न करो. मंदिर की प्रांगन तो सभी के लिए होता है किन्तु बास तो वहां  पुजारी ही करता है. तो क्या बाकी  भक्तो के आने से पुजारी देवता से तो नाराज तो नहीं होता।
कहा की बाते कहा जोड़ रही हो. ये सब कहने -सुनने में अच्छा लगता है ,वास्तविक जीवन में नहीं। 
जो कहने और सुनने में अच्छा है उसे तो जीवन में उतारकर देखते तब न ।
तुम कहना क्या चाहती हो. ये तो सरासर बेशर्मी की हद है.
मै तो हद में होकर बेशर्म हु किन्तु तुम्हरी बातो  से  हद  भी शर्म से छुप गया, कहा तक जाओगे, तुमने कौन सी सीमा तय कर राखी है?
तुम तो सभी बातो की खिचड़ी पका देती हो.
जब दिमाग का हाजमा  ख़राब हो जाता है तो ये नुकसानदेह नहीं है. तुम्हे इन खिचड़ी की जरुरत है.
 तुम कुछ समझ क्यों नहीं रही हो,जो मै  कहना चाहता हु.
अब अच्छी तरह से समझ रही हु ,पहले नासमझ थी.। 
तुम्ही तो मुझसे दूर गए थे ,कितने लांछन लगाये थे जाते वक्त कुछ  याद है या भूलने का नाटक कर रहे हो। सख्त गांठो को खोलने से वो खुलता नहीं रेशा ही तिल-तिल कर निकलता है,बीती यादो को मवाद के रूप में बाहर निकलने न दो। 
उन काँटों को मन से निकाल फेको।
कैसे फेंकू,कोई  सहजने लायक फूल खिलने कहा दिए तुमने।
वो मेरी गलती थी मानता हु.।  
क्यों अब तुम्हारा अहम् या कहे शंकालू मन  सुखी लकड़ी की टंकार नहीं मारता ? तुम्हारा मन सुखा था, खुद ही तो बोझ डाला ,टूटना ही था.। शायद उर्वरकता शुरु से ही कम था ,मैंने सिचने का प्रयास तो किया किन्तु पता नहीं क्यों तुम इसे मेरी जरुरत समझ बैठे या मेरा कर्तव्य । फूलो के चटकने और सुखी लकडियो के चटकने में अंतर तो होता ही होगा,तुमने कोई मन का फुल तो चटकाया नहीं की उसकी मधुर तरंगे कानो को तरंगित करती ।
हम फिर से शुरुआत  कर सकते है.। 
हम नहीं तुम । 
रुकना तुम्हे पसंद है मै पसंद नहीं करती हू ,तुम क्या समझ नहीं पाए,चलो अच्छा हुआ.। वैसे समझने लायक समझ रखते तो आज कल की बाते नहीं होती । मै तो कभी ठहरी कहा। समय ने रुकने का मौका ही नहीं दिया।तुम्हारे जाने का निर्वात, क्या निर्वात रहता ? ऐसा विज्ञानं तो मानता नहीं। तुम्हारा  यही दिक्कत है ,न लोगो के कहने की बाते मानते हो न विज्ञान को समझते हो । तुम्हारे लिए अब यही ठीक होगा की अपने अन्दर एक निर्वात को महसूस करो शायद कोई भर जाये। शायद, नहीं नहीं  ये मेरी आशा भी है और दुआ भी.....पर महसूस तो करो।  

Sunday 21 July 2013

दोषी कौन ?

                     खाट जिसकी रस्सीयां  उसी के नस की तरह ढीली है।खाट की लकड़ी भी अब हड्डियो की तरह कमजोर हो रखा है। उसी का भार उठा रखा है क्योकि उसने बड़े जतन से अपने लिए वो खाट बनाया था।बड़ा ही निर्जीव खाट किन्तु खाट  की संवेदना सजीव। चारो तरफ काफी भीड़-भाड़  है। मिटटी का घर किनारे गोबड़  का ढेर, प्रेमचंद साहित्य का गाँव  अभी भी साठ साल बाद वैसे ही जीवंत तथा  मुखर है, जैसे  सरकार ने उनकी साहित्य की संवेदना को उसी रूप में रख उस अवस्था से कोई छेड़ -छाड़ न कर  सच्ची श्रधान्जली दे रखी है।  जाने कौन किसका मजाक  उडाता हुआ? निचे एक पटिये पर महिला बेसुध पड़ी है। दो दिन हो गए जब  उसका  बेटा मर गया या मारा गया । सन्नाटा पसरा  है मौत अपने साथ उसे ले के आया। कल तक बच्चो की किलकारी से परेशान उसका दादा अब आवाज को जैसे अपने पथरीली आँखों से दूंड  रहा है।
                    लगता है क्या,पड्सो  की ही तो बात है।भोलवा को भूख लगी थी । उसकी मतारी उसको  कुछ देने के बजाय चमाटा  खिलाये जा रही थी। तब तक खांसते-खांसते नाक से धुवा छोड़ते पूछा-
                 का बात है भोलवा की माँ नाहक काहे पिट रही हो ?
               कपडे से झांकते काया  को समटने का प्रयास करते उसकी माँ  बुदुदाई -अब कुछ रहे तो न दे। बिहाने से दो-दो बार डकार गया है।अब दोपहरिया बित  जाये तो कुछ बनाये अभी कहा से लाये।
              बुड़े की पूरी उम्र कटते -कटते अब दहलीज पर आ गयी। परिवर्तन के नाम पर देखा तो बहुत कुछ किन्तु शायद अभी उसको या उसके जैसो को और इंतजार भाग्य ने या लिखने वाले ने  लिखा है। उसे पता है पोते के पेट में जो आग लगी उसकी उष्णता कितनी तीब्र है।
            उसी को ठंडक पहुचाने के लिए तो उसने उसे स्कूल भेजना शुरु किया। शिक्षा  तो जरुरी है इसमें तो उसे कोई संदेह नहीं था। किन्तु सामाजिक विकास के गाड़ी  पर कभी भी सवार होने का मौका नहीं मिला। किसको दोष दे? चलो स्कूल में ज्ञान मिले न मिले अन्न तो मिलता है।समय चक्र का क्या कहना कभी कहते थे शिक्षा  होगी तो खाना अपने आप मिलेगा किन्तु अब खाना लेने  पर शिक्षा  मिलता है। 
           आज उसके हाथ में सरकार के बड़े अफसर एक कागज का टुकरा थमा गए। भोलवा पेट की आग को ठंडा करने में खुद ही ठंडा हो गया।
         सोच रहा अगर भोलवा घरे में ऐसे चल बसता तो कोई पूछने भी नहीं आता,बस साथ में यही के दो चार पडोसी होते,किन्तु आज तो काफिला है गाँव में। भोलवा तो का कुर्वानी दे दिया की  पुरे घर ही अब संबर जायेगा।
               किन्तु बुड्ढा अभी भी ललाट की उभरी  नसों पर जोर मार रहा है, ऊपर आती जाती सांसो से ही पूछने की कोशिस   में।दुलधूसरीत काले पन्ने पर कुछ  कालिख प्रश्न गली में फडफड़ा कर उड़ रहे। प्रश्न मुह बाये है,मुह पर हाथ है कोई आवाज नहीं बस दिमाग झनझना रहा है  -भगवान मारता तो किसी से कुछ कह भी नहीं सकते, अच्छा है भोलवा की जान लेकर भोलवा के भाई को दो निवाला मिल गया। लेकिन क्या भोलवा के भाई को अपने जीते जी वहां पेट में ठंडक पहुचने भेज पायेगा? किन्तु भोलवा के जाने का दोषी कौन है ,उसकी मतारी ,वो खुद या कोई और ...........? सोचते -सोचते नजर उस कागज के टुकरे पे था, हर अंको के गोले में जैसे भोलवा का चेहरा दिख रहा हो ....