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Wednesday 2 April 2014

माया

वंचित आनंद से और 
संचित माया का राग ,
जीवन के हर दुःख में बस इसका प्रलाप 
फिर स्व उद्घोषित माया क्या ?
माया तो कुछ भी नहीं
लोलुपता का महा-काव्य है
खुद से छल, अनुरक्त से विरक्ति
लोभ -प्रपंच से सिक्त
निकृष्ट प्रेम का झूठा प्रलाप है।
हर वक्त ह्रदय में आलोड़ित
असीम  आनंद कि तरंगे,
सुरमई शाम के साथ
विहंगो कि कलरव उमंगें,
सब से विमुख हो
और करते प्रलाप ,
डसे जाने का त्राश, 
जीवन के द्वारा ही जीवन को।
फिर माया के नाम का करते आलाप है 
किन्तु यह निकृष्ट इच्छा का प्रलाप है।
गढ़ा है खूब वक्त कि कालिख से 
की इसके स्याह आवरण ने ढक दिया है,
उस श्रोत को जो अनवरत
बस आनंद का श्रृजन  करता है। 
और हम भटकते रहते है 
उस खोज में जीवन के, 
जो श्रृष्टि  ने आदि से ही 
हर किसी  के संग लगाया है। 
माया की महिमा को 
जीवन के दर्शन में क्या सजाया है ,
जैसे दर्शन जीव का न हो निर्जीवों कि काया है।  
और अनवरत चले जा रहे है, 
उसी निर्जीव में सजीव आनंद की  चाह लिये,
जिसे माया के नाम पर 
जाने कब से ह्रदय में उठते आनंद को, 
हमने स्व-विकृत चाह में इसे दबाया है। 
आनंद को माया के नाम छलना ही संताप है 
क्योंकि यह निकृष्ट सुख का छद्म प्रलाप है। । 

Monday 27 January 2014

जीवन

जीवन 
दोनों के पास है
एक  है इससे क्षुब्ध
दूसरा है इससे मुग्ध
एक पर है भार बनकर बैठा
दूजा इसपर बैठकर है ऐंठा। 
जीवन 
दोनों के पास है,
एक ही सिक्के के,
दो पहलूँ कि तरह। ।
जीवन 
एक महल में भी कराहता है 
तो कहीं फूंस के छत के नीचे दुलारता है। 
कोई अमानत मान इसे संभाल लेता 
तो दूजा तक़दीर के नाम पर इसे झेलता। 
जीवन 
दोनों के पास है 
एक ही मयखाने के 
भरे हुए जाम और टूटे पैमाने की तरह। । 
जीवन 
मुग्ध सिद्धार्थ जाने क्यों
हो गया इससे अतृप्त,
अतृप्त न जाने कितने
होना चाहते इसमें तृप्त। 
जीवन 
दोनों के पास है ,
एक ही नदी के 
बहती धार और पास में पड़े रेत की तरह। ।
जीवन 
शीतल बयार है यहाँ
वहाँ चैत की दोपहरी,
वो ठहरना चाहे कुछ पल 
जबकि दूजा बीते ये घडी। 
जीवन 
दोनों के पास है ,
एक ही पेड़ के 
खिले फूल और काँटों की तरह। । 
एक ही नाम के 
कितने मायने  है ,
बदरंग से रंगीन 
अलग-अलग आयने है, 
लेकिन जीवन अजीब है 
बस गुजरती है जैसे घड़ी की  टिक-टिक। 
उसका किसी से 
न कोई मोह न माया है ,
वो तो गतिमान है उसी राहों पर 
जिसने उसे जैसा मन में सजाया है। । 

Wednesday 2 October 2013

एक आत्मा की पुकार

हो आबद्ध युगों -युगों से
निरंतर दर-दर बदलता रहा
मुक्ति की खोज में
अब तक किसी न किसी 
काया संग युक्त ही चलता रहा.…। 

 मै अजन्मा ,जन्म काया
निर्लिप्त ही, न मोह पाया
शस्त्र ,वायु या अग्नि
अशंख्य पीड़ा की जननी  
अन्य भी न संहार पाया  ……. । 

किन्तु अब घुटता यहाँ
काया में बसता जहाँ
मलिनता छा रहा
मै  आत्मा अब
खुद पर ही रोता रहा ……. ।  

सतयुग से भटकता   
कदम बढाता कल्कि तक पंहुचा 
शायद मै  हो जाऊ मुक्त 
अंतिम सत्य से दर्शन 
युगों युगों से अब तक विचरण ……. ।  

धृष्टता सब युगों में देखि
किन्तु अब ये संस्कार 
मन मलिन काया संग करता 
मै आत्मा वेवश लाचार
किन्तु दोष ले पुनः भटकता…… . । 

जीर्ण -शीर्ण रक्षित देह 
व्याकुल विवश कितने से नेह 
मृत जग न छोड़ जाना चाहे 
किन्तु मै हर्षित हो अब 
महाप्रयाण करू इस जग से परे…….. . ।  

करुणा पुकार अब श्याम करू 
इन दिव्यता से उद्धार कर  
मै  भी चाहूँ मुक्ति अब 
खुद से अब इस आत्मा का 
इस धरा से संहार कर…… . । 

Saturday 14 September 2013

मायने

कभी मै  गम पीता हु 
कभी गम मुझे पीता है
मरते है सब यहाँ ,
पर सभी क्या जीता है ?
जीने के सबने मायने बनाये है
उनके लिए क्या 
जो कफ़न से तन को ढकता  है ?
मेरी मंजिले वही 
जहाँ कदम थक गए
निढाल होकर  जहाँ 
धरा से लिपट गए। 
सभी राहें वही
फिर राह क्यों कटे कटे
विभिन्न आवरण से सभी 
सत्य को क्यों ढकता है ?
कदम दर कदम जब 
फासले है घट रहे 
मन में दूरियां क्यों 
बगल से होता जाता है ?
जहाँ से चले सभी 
अब भी वही खड़े 
विभिन्न रूपों में बस  
वक्त के साथ बदल पड़े। 

Friday 6 September 2013

रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।।

जीवन के हर लघु डगर पर
उम्मीदों के बल को भर कर
है कांटे या कली कुसुम का
राहों की उस मज़बूरी पर
कभी ध्यान उसपर न रखता
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।।

सुबह-सुबह  रवि है मुस्काए
या बैरी बादल उसे सताये
शिशिर सुबह की सर्द हवाए
या जेठ मास लू से अलसाए
उस पर मै  न कभी विचरता
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।।

हर दिन में एक सम्पूर्ण छवि है
ब्रह्म नहीं मानव का दिन है
कितने क्षण -पल है गुजरते
उन सबका अस्तित्व अलग है
हर क्षण को जी-जीकर कर ही बढ़ता
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।।

        मंजिल यही कहाँ है जाना        
प्रारब्ध नहीं बस कर्म निभाना  
हर  कदम की महिमा न्यारी 
जैसे बिनु  दिन  वर्ष बेचारी
कदम जमा  कर आगे बढता 
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।।

पूर्ण जीवन एक महासमर है
हर दिन का संग्राम अलग है
अमोघ अस्त्र है पास न कोई 
डटें रहना ही ध्येय मन्त्र है 
घायल हो-होकर मै  उठता 
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।। 

परजीवी का भाव नहीं है
याचक सा स्वभाव नहीं है
आम मनुज दीखता हूँ बेवस
पर दानव सा संस्कार नहीं है 
अपनी क्षुधा बुझाने हेतु 
खुद का रक्त ही दोहन करता 
  रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।। 

ज्यों-ज्यों रवि पस्त है होता 
तिमिर द्वार पर दस्तक देता 
जग अँधियारा मन प्रकाशमय 
ह्रदय विजय से हर्षित होता
है संघर्ष पुनः अब कल का 
पर बिता आज ख़ुशी मन कहता  
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।। 

Saturday 31 August 2013

अस्तित्व


कुछ शेष रह जाते यहाँ
यादो की परछाई में
कुछ के निशां भी नहीं होते  
बह जाते है वक्त की पुरवाई में। 
किसकी किस्मत क्या  है
ये तो बस बहाना है,
गुजरे कर्मो को इस लिबास से
ढकने का रिवाज पुराना है। 
खुद में रहकर ही ,
खुद के लिए जो  गुजर जाते है ,
उन मजारो पर देखो जाकर
वहाँ घास-फूसों का आशियाना है। 
अपने आप को छोड़कर जो
औरों के लिए दर्द  लेते है 
अपनी पलकों के नींद किसी और को देते है
जिनका हाथ किसी गैर का सहारा है 
कंधो पे भार खुद का नहीं 
अरमानों का बोझ कई का संभाला है 
जो आवाज है कई 
हकलाती जुवानों का 
जिनके कानों में गूंजती है टीस 
किसी के कराहने का। 
उनके अस्तित्व ढूंढे नहीं जाते
वो सोते है गहरी नींद में
और लोग रोज उन्हें जगाने वहाँ आते 
झुके हाथों से नमन उन्हें करते है 
तुम हो साथ मेरे बस ऐसा कहते है। । 
इन बातों को शब्दों में गढ़ना कितना आसान  है ,
लगता नहीं कोई इससे अंजान है , 
हम उनसे अलग नहीं कोई 
किन्तु सोच शायद, कभी कर्म में बदल जायेगे 
कोई अस्तित्व हम भी गढ़ जायेंगे। । 

Monday 26 August 2013

मै सिर्फ मै हूँ

सफ़र कितना कर लिया 
शून्य से निकला ,भंवर में बिखरा 
कितने अणुओं -परमाणुओं के 
आकर्षण और विकर्षण से ठिठका 
तरल हो कब तक था उबला 
जैसे किसी संताप से निकला  
फिर भी चलता रहा अब तक 
अबाधित ,कुछ प्रायोजित 
जाने किस महाहेतु से।
शून्य के द्वार से ,
महा प्रलय के प्रहार तक। 
है सभी का कुछ न कुछ मुझमे 
सींचा है पञ्च तत्व पग में 
मन का पाया विस्तार अनंत 
न किंचित दूर छिटके कोई भी कण 
अबाधित ,कुछ प्रायोजित 
एकात्म के ही महाहेतु से।
किन्तू अब इस पड़ाव पर 
निरुदेश्य सा बेचैन,दिग्भ्रमित 
सत तत्व का सब  अक्स  धुल रहा जैसे  
रह गया बस राख का रज जैसे  
थी  मुझमे असीम आकांक्षा 
और था सामर्थ्य भी 
अनंत व्योम को खुद में समाहित 
या हो जाऊ उसमे विलीन।
प्रकाश पुंज अब छिटकता जैसे  
महाउद्देश्य से भटक गया , 
"हम" है अब भी  कितना दूर मुझसे 
"मै" सिर्फ "मै" हूँ ,में  रह गया। । 

Sunday 25 August 2013

पुनरावृती ...?

समंदर के किनारे ,
रेत पर बनती आकृतिया ,
कैसे लहरों के संग विलीन होकर
सागर में समां जाती है।
वो उकेरता है फिर भी,
कुछ रंग भरने की चाहत समेट नहीं पाता ,
है अन्जान नहीं की ,
लहरे फिर से आनी है ,इसको समां जाना है।
कितना अजीब है पर
हम इसको ही दोहराते है। ।

जो आया है खुशी  में उसके ,
और जो चला गया ,
दुःख में अहसास कर,
बरबस चेहरे पर निकल छा जाते।
ये आंसू है खारे ,सभी जानते है ,
पर  मोह  जिसे नित मानते है।
बरगद का जड़ जैसा मन,
कितना भी तोड़ो मोह से जुड़ जाते ।
कितना अजीब है पर
हम इसको ही दोहराते है। ।

कमबख्त दिनों-दिन तक उलझे रहे ,
न बुझने पाए रसोई की ताप।
ठन्डे हो जाने पर भी ,
 इन उष्ण लपटों की चाहत से ,
खुद को बचा पाते नहीं।
सब सामने है ,सब कुछ दीखता है,
रोज वही लहरों का उठाना,
और एक नई  इबारत  की कोशिश और टूटना।
कितना अजीब है पर
हम इसको ही दोहराते है। ।

Friday 23 August 2013

जीवन में कविता है और कविता में जीवन।।

                                                                                                                                                                              (चित्र :गूगल साभार )
जीवन की गति कुछ-कुछ यूँ बढती है,
जैसे कोई स्याही कागद पे चलती है। 
क्षण-क्षण अक्षरों का मिलता है जैसे,
पलों का  रूप शब्दों में ढलता  है वैसे।
हर कोई कुछ अर्थ गढ़ना चाहता है ,
कुछ क्षण, पल भी ठहरना चाहता है। 
कौमा ,अर्ध कौमा जैसे ठहर पड़ता है ,
पंक्तिया धर रूप निखर चलता है। 
बढ़ते हुए पर  दोनों भावों में है  मन ,
जीवन में कविता है या कविता में जीवन।।

छंद ,मात्र ,अर्ध बिंदु पर नजर है गड़ाए,
अटक-अटक कर पर नीव बढती ही जाये। 
अलंकारो की चाहत उलझती है जब-जब ,
चौराहों में कही खड़े पाते है तब -तब। 
जिनको मिला भाव संवरकर वो आगे,
जीवन के सुर में है खूब  गोते लगाते।
बढ़ते हुए पर  दोनों भावों में है  मन ,
जीवन में कविता है या कविता में जीवन।।

कोई मुक्तक है छेड़े,उन्मुक्त ही बड़ा है  ,
ढूंडता सार उसमे ,बस कोई अर्थ गढ़ा है। 
नागफनी के भी श्रृंगार कोई कर है बढता,
कोई खुसबू में उलझ कर ही रहता। 
जीवन क्या सोच-सोच कर है गढ़ते ,
या गढ़-गढ़ कर सदा सोचते है रहते ? 
बढ़ते हुए पर  दोनों भावों में है  मन ,
जीवन में कविता है या कविता में जीवन।।

ॐ नाद जीवन, जब श्रृष्टि ने पुकारा , 
ऋचा वेद कविता की संग बही धारा।  
जीवन में कविता जैसे सरिता में नीर ,
कविता में जीवन भड़े  भाव गंभीर। 
मधुकर ये जीवन जब कवित्व घुलते है,
काया बिन आत्मा, नहीं तो ये दिखते है। 
है पूरक ये दोनों, जीवन आकृति उकेड़ा ,
कविता ने भर-रंग ,जीवन छटा बिखेरा। 
बहते हुए इन भावों में अब कहता है मन ,
जीवन में कविता है और कविता में जीवन।।