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Sunday 7 August 2016

रस्मी बादल


फिर लौट आया है       
वो कारवां बदलो का,
जो रुखसत हो जाता है जाने कैसे
बिन बरसे ही इन राहों से।
नजर टिकती है हर वर्ष कि भांति
कि अबकी शायद  बरस जाये
 धो दे कहल सब अंतस के।
बहुत गरजते है सब इस मौसम में
लहलहाने को मचलता मन
सींच देगा ये अबकी बार धरा ऐसे
उर्वरकता बस लहलहा उठेगी।
शोर है , कोलाहल भी छाई है
ये मास ही है कुछ ऐसा
बोने को बीज आतुर सब
सुगबुगाहट देशभक्ति चीत्कार सी  लगती ।
बरसेंगे मन सबके, सावन के फुहारों से
कुछ कर गुजरने कि
बयार मन को लहलहा देगा।
हर बार ये ऋत कुछ ऐसा ही लगता है ,
रस्मी बादल जो न शायद बरसता है।
मिट्टी में दरारें नमीं पर प्रश्न करते
अगर बरसते बादल तो ये कैसे इतना दरकते।।
फिर लौट आया है
वो कारवां बदलो का
जो रुखसत हो जाता है जाने कैसे
बिन बरसे ही इन राहों से।      

Monday 7 April 2014

आंसू

बहते आसुओं कि लड़ी को 
उम्मीदो के धागे से बाँध कर 
मैंने अर्पित कर दिया उसी को 
जिसने ये सोता बनाया। 
न कोई मैल है न शिकायत 
की ये झर्र -झर्र कर बहते है 
शुष्क ह्रदय कि इस दुनिया में 
मुझसे  खुशनसीब कौन है। 
ये गिर कर बिखर न जाए 
बस इतना ही फ़िक्र करता हूँ 
की और कोई मोतियों की लड़ी नहीं 
जो मै तुझको समर्पित कर सकूँ। 
मांगू क्या और तुझसे 
न मिले तो भी रिसती है 
और मिलने के बाद भी 
फिर यूँ  ही बहकती रहती है। 
मैं  जानता हु तू मेरा है ये जताने के लिए  
दर्द बन कर यूँ ही  सताता है 
और तेरी रहमत का क्या कहना 
साथ में आंसू भी दवा बन आ ही जाता है। ।