Wednesday 17 July 2013

सपनो की हत्या

                               त्रासदी ,विडंबना ,दुर्भाग्य क्या कहा जाय। इतने इतने बच्चो का बेवक्त इस दुनिया से रुखसत। उन फूलो की मौत ,उन चिरागों का बुझना जिसको लेके कितने उम्मीदे  पाल रखी होगी। सपनो की अकाल त्रासदी। न जाने कौन गुदरी का लाल कल का कलाम होता,कौन इनमे रामानुजन की राह चलता ,किसको शास्त्री जी की  कर्मठता अपनी और खिचती। जिन लोगो के आंशु पसीने के रूप में निकल कर बह गए उनके ही बच्चे  थे, अब आंशु बचे भी नहीं होंगे क्या बहायेंगे ये बेचारे। अरमानो की पूरी स्वपन महल न जाने किनके करतूतों की वजह से  उजाड़ गयी। क्या अपराध था इन बच्चो का क्या ये गरीब थे, या इन्होने ज्यादा भरोसा कर बैठा की कोई उसको उबरने का प्रयास कर रहा है।कमबख्त अपने ही घरो के आनाजो पर भरोसा क्या होता ,थोड़ी पेट ही खली होती, भूख से कुछ समय बिलखते,कुपोषण दूर करने गए खुद ही धरती से दूर हो गए।
                            सामान्य घटना तो नहीं है ,इसलिए असामान्य रूप से सभी मीडिया के बिभिन्न स्तरो पर चर्चा का केंद्रबिंदु है। घटना के बाद की प्रतिक्रियाओ से लगता है जैसे अब हम इन बातो के इतने अभ्यस्त  हो गए है की इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। असामान्य रूप से संवेदनाये अपने -अपने स्वार्थ,हितो को देखते हुए असंवेदनशील रूप से व्यक्त किया जा रहा है।
चलो लौट जाये 
                                क्या सिर्फ व्यवस्थापक दोष के ही कारण ऐसे घटनाओ की पुर्नावृति हो रही है या समाज के हर स्तर पर हम सब किसी न किसी रूप में इस के लिए जिम्मेदार है विचारणीय है। किसी भी देश का बाल पूंजी इस प्रकार से काल के गाल में समां जय तो भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लगना अश्वाम्भावी है। या इस तरह के प्रबंधो के निहित बच्चो को देश का भविष्य मानने में संकोच तो हम नहीं कर रहे है। आंकड़े कहते है की लगभग ४ ७ % बच्चे कुपोषण के शिकार है उनमे से कितने इस प्रकार के प्रबंध के तहत है उन आंकड़ो से क्या सिर्फ बैचैनी होती है की पता नहीं ये बच्चे कब इसका शिकार हो जाये।
                                  हर घटना के बाद की जाँच की औपचरिकता पुनः इसके बाद भी दोहराया जायेगा। जिन माँ के गोद इसके कारन सुनी हो गई उनका क्या? गरीबी की मार से दबे इन परिवार के लोग अब ऐसे मार से दब गए जिसमे उनको उबरने में वर्षो लगेंगे। किसी भी मुवावजे की सूरत ऐसे नहीं हो सकती जिसमे अपने से जुदा बच्चो की तस्वीर ये परिवार वाले देख सके।                                  

देश का भविष्य ?
                घटनाओ से हमें सबक सिखने की आदत नहीं। चाहे ये घटना हो या कोई और। प्राकृतिक या मानव निर्मित। ऐसे लगता है हम सिर्फ घटना सुनने के लिए या फिर सहने के लिए है।हर के बाद किसी और के होने की इंतजार का एक रोग लगा हुआ है तभी तो रोकने के नाम पर सिर्फ कागजो का दोहन कर उसे पुनरुत्पाद हेतु खोमचे वाले के पास दे आते।इस भ्रम में  न रहे की इन घटनाओ का कोई आर्थिक आधार है ये किसी भी वर्ग के लोगो को कभी भी डस कर अपना शिकार बना सकते है। जैसे ये फूल खिलने से पहले मुरझा गए।  

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